Thursday 30 July 2015

प्रेमचंद -प्रसंग

मार्क्सवादी आलोचना और आलोचकों के दौर में प्रेमचंद की कुछ खास कहानियों को ही हाई लाईट किया जाता था .तब हम विद्यार्थी थे और प्रेमचंद की सभ्यता विमर्श वाली कई कहानियों की और हमारा धयान ही नहीं गया .उदहारण के लिए ईश्वर और धर्म विषयक लगभग बीस से अधिक कहानियां उनके मानसरोवर के विभिन्न खण्डों में मिलती है .जैसे -खुदाई फौजदार ,चमत्कार ,बासी भात में खुदा का साझा , नरक का मार्ग ,स्वर्ग की देवी ,मनुष्य का परम धर्म ,मुक्ति मार्ग ,सद्गति ,मृतक भोज ,मंदिर ,राम लीला ,हिंसा परम धर्म ,ईश्वरीय न्याय ,शाप , पाप का अग्नि-कुण्ड,नाग पूजा ,दुर्गा का मंदिर ,ब्रह्म का स्वांग ,धर्म संकट आदि ,इसी तरह नैतिकता और चरित्र को लेकर सेवा मार्ग ,पशु से मनुष्य ,सच्चाई का उपहार ,सज्जनता का दंड , नामक का दरोगा ,न्याय , मर्यादा की वेदी ,चोरी ,लांछन ,प्रायश्चित ,इश्तीफा और माता का ह्रदय आदि ,उन्होंने मनोवेज्ञानिक पृष्ठभूमि पर आधारित धिक्कार , कायर ,अनुभव , मनोवृत्ति ,गिला ,लांछन ,उन्माद , कुत्सा ,नैराश्य ,क्षमा ,प्रेरणा अभिलाषा ,कामना तरु ,ममता ,पछतावा ,अधिकार चिंता ,दुराशा ,शांति ,बोधा ,अनिष्ट शंका जैसी महत्वपूर्ण कहानियां लिखी हैं .उनकी धर्म और ईश्वर विमर्श से सम्बंधित सर्वाधिक महत्वपूर्ण कहानी "बासी भात में खुदा का साझा"(मानसरोवर भाग २ ) की निम्नलिखित पंक्तियाँ देखें-"'उनसे बड़ा निर्दयी कोई संसार में न होगा . जो अपने रचे हुए खिलोनो को उनकी भूलों और बेवकूफियों की सजा अग्निकुंड में धकेल कर दे ,वह भगवान दयालु नहीं हो सकता .भगवान जितना दयालु है ,उससे असंख्य गुना निर्दयी है .और ऐसे भगवान की कल्पना से मुझे घृणा होती है .प्रेम सबसे बड़ी शक्ति कही गयी है ,विचारवानों ने प्रेम को ही जीवन की और संसार की सबसे बड़ी विभूति मानी है .व्यवहार में न सही ,आदर्श में प्रेम ही हमारे जीवन का सत्य है ,मगर तुम्हारा ईश्वर डंडा भय से सृष्टि का संचालन करत है .फिर उसमें और मनुष्य में क्या फर्क हुआ ? ऐसे ईश्वर की उपासना मैं नहीं करना चाहता ,नहीं कर सकता .जो मोटे हैं उनके लिए ईश्वर दयालु होगा क्योंकि वे दुनिया को लूटते हैं . हम जैसों को तो ईश्वर की दया कहीं नज़र नहीं आती हाँ भय पग - पग पर खड़ा घुर करत है . यह माता करो नहीं तो ईश्वर दंड देगा .वह मत करो नहीं तो ईश्वर डंडा देगा .पेम से शासन करना मानवता है ,आतंक से शासन करना बर्बरता है .आतंकवादी ईश्वर से तो ईश्वर का न रहना ही अच्छा है .उसे ह्रदय से निकल कर मैं उसकी दया और डंडा दोनों से मुक्त हो जाना चाहता हूँ .एक कठोर डंडा वर्षों के प्रेम को मिटटी में मिला देता है . मैं तुम्हारे ऊपर बराबर जान देता रहता हूँ ,लेकिन किसी दिन डंडा लेकर पीत चलूँ तो तुम मेरी सूरत न देखोगी . ऐसे आतंकमय ,दण्डमय जीवन के लिए मैं ईश्वर का एहसान नहीं लेना चाहता .बसी भात में खुदा के साझे की जरुरत नहीं .अगर तुमने ओज-भोज पर जोर दिया ,तो मैं जहर खा लूँगा ." अभिव्यक्ति का यह कबीर जैसा निर्णायक स्वर आज भी आश्चर्यचकित करत है .ऐसी निर्णायक अभिव्यक्ति तो सिर्फ भगत सिंह नें की है .
                                                                                                                       रामप्रकाश कुशवाहा 

Friday 10 July 2015

हिंदी-सामान्य ज्ञान

1. हिन्दी में प्रथम डी. लिट् -- डा. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल
2. हिंदी के प्रथम एमए -- नलिनी मोहन सान्याल (वे बांग्लाभाषी थे।)
3. भारत में पहली बार हिंदी में एमए की पढ़ाई -- कोलकाता विश्वविद्यालय में कुलपति सर आशुतोष मुखर्जी ने 1919 में शुरू करवाई थी।
4. विज्ञान में शोधप्रबंध हिंदी में देने वाले प्रथम विद्यार्थी -- मुरली मनोहर जोशी
5. अन्तरराष्ट्रीय संबन्ध पर अपना शोधप्रबंध लिखने वाले प्रथम व्यक्ति -- वेद प्रताप वैदिक
6. हिंदी में बी.टेक. का प्रोजेक्ट रिपोर्ट प्रस्तुत करने वाले प्रथम विद्यार्थी : श्याम रुद्र पाठक (सन् १९८५)
7. डॉक्टर आफ मेडिसिन (एमडी) की शोधप्रबन्ध पहली बार हिन्दी में प्रस्तुत करने वाले -- डॉ० मुनीश्वर गुप्त (सन् १९८७)
8. हिन्दी माध्यम से एल-एल०एम० उत्तीर्ण करने वाला देश का प्रथम विद्यार्थी -- चन्द्रशेखर उपाध्याय
9. प्रबंधन क्षेत्र में हिन्दी माध्यम से प्रथम शोध-प्रबंध के लेखक -- भानु प्रताप सिंह (पत्रकार) ; विषय था -- उत्तर प्रदेश प्रशासन में मानव संसाधन की उन्नत प्रवत्तियों का एक विश्लेषणात्मक अध्ययन- आगरा मंडल के संदर्भ में
10. हिन्दी का पहला इंजीनियर कवि -- मदन वात्स्यायन
11. हिन्दी में निर्णय देने वाला पहला न्यायधीश -- न्यायमूर्ति श्री प्रेम शंकर गुप्त
12. सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में हिन्दी के प्रथम वक्ता -- नारायण प्रसाद सिंह (सारण-दरभंगा ; 1926)
13. लोकसभा में सबसे पहले हिन्दी में सम्बोधन : सीकर से रामराज्य परिषद के सांसद एन एल शर्मा पहले सदस्य थे जिन्होने पहली लोकसभा की बैठक के प्रथम सत्र के दूसरे दिन 15 मई 1952 को हिन्दी में संबोधन किया था।
14. हिन्दी में संयुक्त राष्ट्र संघ में भाषण देने वाला प्रथम राजनयिक -- अटल बिहारी वाजपेयी
15. हिन्दी का प्रथम महाकवि -- चन्दबरदाई
16. हिंदी का प्रथम महाकाव्य -- पृथ्वीराजरासो
17. हिंदी का प्रथम ग्रंथ -- पुमउ चरउ (स्वयंभू द्वारा रचित)
18. हिन्दी का पहला समाचार पत्र -- उदन्त मार्तण्ड (पं जुगलकिशोर शुक्ल)
19. हिन्दी की प्रथम पत्रिका
20. सबसे पहला हिन्दी-आन्दोलन : हिंदीभाषी प्रदेशों में सबसे पहले बिहार प्रदेश में सन् 1835 में हिंदी आंदोलन शुरू हुआ था। इस अनवरत प्रयास के फलस्वरूप सन् 1875 में बिहार में कचहरियों और स्कूलों में हिंदी प्रतिष्ठित हुई।
21. समीक्षामूलक हिन्दी का प्रथम मासिक -- साहित्य संदेश (आगरा, सन् 1936 से 1942 तक)
22. हिन्दी का प्रथम आत्मचरित -- अर्धकथानक (कृतिकार हैं -- जैन कवि बनारसीदास (कवि) (वि.सं. १६४३-१७००))
23. हिन्दी का प्रथम व्याकरण -- 'उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण' (दामोदर पंडित)
24. हिन्दी व्याकरण के पाणिनी -- किशोरीदास वाजपेयी
25. हिन्दी का प्रथम मानक शब्दकोश -- हिंदी शब्दसागर
26. हिन्दी का प्रथम विश्वकोश -- हिन्दी विश्वकोश
27. हिन्दी का प्रथम कवि -- राहुल सांकृत्यायन की हिन्दी काव्यधारा के अनुसार हिन्दी के सबसे पहले मुसलमान कवि अमीर खुसरो नहीं, बल्कि अब्दुर्हमान हुए हैं। ये मुलतान के निवासी और जाति के जुलाहे थे। इनका समय १०१० ई० है। इनकी कविताएँ अपभ्रंश में हैं। -(संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ ४३१)
28. हिन्दी की प्रथम आधुनिक कविता -- 'स्वप्न' (महेश नारायण द्वारा रचित)[1]
29. मुक्तछन्द का पहला हिन्दी कवि -- महेश नारायण[2]
30. हिन्दी की प्रथम कहानी -- हिंदी की सर्वप्रथम कहानी कौनसी है, इस विषय में विद्वानों में जो मतभेद शुरू हुआ था वह आज भी जैसे का तैसा बना हुआ है. हिंदी की सर्वप्रथम कहानी समझी जाने वाली कड़ी के अर्न्तगत सैयद इंशाअल्लाह खाँ की 'रानी केतकी की कहानी' (सन् 1803 या सन् 1808), राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद की 'राजा भोज का सपना' (19 वीं सदी का उत्तरार्द्ध), किशोरी लाल गोस्वामी की 'इन्दुमती' (सन् 1900), माधवराव सप्रे की 'एक टोकरी भर मिट्टी' (सन् 1901), आचार्य रामचंद्र शुक्ल की 'ग्यारह वर्ष का समय' (सन् 1903) और बंग महिला की 'दुलाई वाली' (सन् 1907) नामक कहानियाँ आती हैं | परन्तु किशोरी लाल गोस्वामी द्वारा कृत 'इन्दुमती' को मुख्यतः हिंदी की प्रथम कहानी का दर्जा प्रदान किया जाता है|
31. हिन्दी का प्रथम लघुकथाकार --
32. हिन्दी का प्रथम उपन्यास -- 'देवरानी जेठानी की कहानी' (लेखक -- पंडित गौरीदत्त ; सन् १८७०)। श्रद्धाराम फिल्लौरी की भाग्यवती और लाला श्रीनिवास दास की परीक्षा गुरू को भी हिन्दी के प्रथम उपन्यस होने का श्रेय दिया जाता है।
33. हिंदी का प्रथम विज्ञान गल्प -- ‘आश्चर्यवृत्तांत’ (अंबिका दत्त व्यास ; 1884-1888)
34. हिंदी का प्रथम नाटक -- नहुष (गोपालचंद्र, १८४१)
35. हिंदी का प्रथम काव्य-नाटक -- ‘एक घूँट’ (जयशंकर प्रसाद ; 1915 ई.)
36. हिन्दी का प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता -- सुमित्रानंदन पंत (१९६८)
37. हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास -- भक्तमाल / इस्त्वार द ल लितरेत्यूर ऐन्दूई ऐन्दूस्तानी (अर्थात "हिन्दुई और हिन्दुस्तानी साहित्य का इतिहास", लेखक गार्सा-द-तासी)
38. हिन्दी कविता के प्रथम इतिहासग्रन्थ के रचयिता -- शिवसिंह सेंगर ; रचना -- शिवसिंह सरोज
39. हिन्दी साहित्य का प्रथम व्यवस्थित इतिहासकार -- आचार्य रामचंद्र शुक्ल
40. हिन्दी का प्रथम चलचित्र (मूवी) -- सत्य हरिश्चन्द्र
41. हिन्दी की पहली बोलती फिल्म (टाकी) -- आलम आरा
42. हिन्दी का अध्यापन आरम्भ करने वाला प्रथम विश्वविद्यालय -- कोलकाता विश्वविद्यालय (फोर्ट विलियम् कॉलेज)
43. देवनागरी के प्रथम प्रचारक -- गौरीदत्त
44. हिन्दी का प्रथम चिट्ठा (ब्लॉग) -- "हिन्दी" चिट्ठे 2002 अकटूबर में विनय और आलोक ने हिन्दी (इस में अंग्रेज़ी लेख भी लिखे जाते हैं) लेख लिखने शुरू करे, 21 अप्रैल 2003 में सिर्फ हिन्दी का प्रथम चिट्ठा बना "नौ दो ग्यारह", जो अब यहाँ है (संगणकों के हिन्दीकरण से सम्बन्धित बंगलोर निवासी आलोक का चिट्ठा)
45. हिन्दी का प्रथम चिट्ठा-संकलक -- चिट्ठाविश्व (सन् २००४ के आरम्भ में बनाया गया था)
46. अन्तरजाल पर हिन्दी का प्रथम समाचारपत्र -- हिन्दी मिलाप / वेबदुनिया
47. हिन्दी का पहला समान्तर कोश बनाने का श्रेय -- अरविन्द कुमार व उनकी पत्नी कुसुम
48. हिन्दी साहित्य का प्रथम राष्ट्रगीत के रचयिता -- पं. गिरिधर शर्मा ’नवरत्न‘
49. हिंदी का प्रथम अर्थशास्त्रीय ग्रंथ -- "संपत्तिशास्त्र" (महावीर प्रसाद द्विवेदी)
50. हिन्दी के प्रथम बालसाहित्यकार -- श्रीधर पाठक (1860 - 1928)
51. हिन्दी की प्रथम वैज्ञानिक पत्रिका -- सन् १९१३ से प्रकाशित विज्ञान (विज्ञान परिषद् प्रयाग द्वारा प्रकाशित)
52. सबसे पहली टाइप-आधारित देवनागरी प्रिंटिंग -- 1796 में गिलक्रिस्त (John Borthwick Gilchrist) की Grammar of the Hindoostanee Language, Calcutta ; Dick Plukker
53. खड़ीबोली के गद्य की प्रथम पुस्तक -- लल्लू लाल जी की प्रेम सागर (हिन्दी में भागवत का दशम् स्कन्ध) ; हिन्दी गद्य साहित्य का सूत्रपात करनेवाले चार महानुभाव कहे जाते हैं- मुंशी सदासुख लाल, इंशा अल्ला खाँ, लल्लू लाल और सदल मिश्र। ये चारों सं. 1860 के आसपास वर्तमान थे।
54. हिंदी की वैज्ञानिक शब्दावली -- १८१० ई. में लल्लू लाल जी द्वारा संग्रहीत ३५०० शब्दों की सूची जिसमें हिंदी की वैज्ञानिक शब्दावली को फ़ारसी और अंग्रेज़ी प्रतिरूपों के साथ प्रस्तुत किया गया है।
55. हिन्दी की प्रथम विज्ञान-विषयक पुस्तक -- १८४७ में स्कूल बुक्स सोसाइटी, आगरा ने 'रसायन प्रकाश प्रश्नोत्तर' का प्रकाशन किया।
56. एशिया का जागरण विषय पर हिन्दी कविता -- सन् 1901 में राधाकृष्ण मित्र ने हिन्दी में एशिया के जागरण पर एक कविता लिखी थी। शायद वह किसी भी भाषा में 'एशिया के जागरण' की कल्पना पर पहली कविता है।
57. हिन्दी का प्रथम संगीत-ग्रन्थ -- मानकुतूहल (ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर द्वारा रचित, 15वीं शती)
58. हिंदी भाषा का सबसे बड़ा और प्रामाणिक व्याकरण -- कामताप्रसाद गुरु द्वारा रचित "हिंदी व्याकरण" का प्रकाशन सर्वप्रथम नागरीप्रचारिणी सभा, काशी में अपनी लेखमाला में सं. १९७४ से सं. १९७६ वि. के बीच किया और जो सं. १९७७ (१९२० ई.) में पहली बार सभा से पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित हुआ।
59. हिन्दी की प्रथम डोमेन -- www.हरहरमहादेव.com
-प्रो.हरीश सेठी,हिंदी दर्शन व्हाटसप समूह से।

साहित्य में आरक्षण बनाम आरक्षण का विरोध/सुभाष चन्द्र कुशवाहा

अजीब विडंबना है कि समाज के सृजनात्मक क्षेत्रों में घटकवाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद और जातिवाद ने न केवल गहरी पैठ बनाई है अपितु तथाकथित मार्क्सवादियों को भी इस कदर अपनी गिरफ्त में ले लिया है कि उन्होंने जीवन के उत्तरार्द्ध में आते-आते अपने छद्म और सृजनात्मकता को किनारे रख, सीधे-सीधे जातिवादी एजेंडे को उजागर करना शुरू कर दिया है, गोया अब चूके तो पीढि़यां शायद गद्दार कह दें । डा0 रामविलास शर्मा भी अंततः इसी एजेंडे को छुपा न पाये थे और आज नामवर जी सामाजिक आरक्षण के बहाने बोल कर भी अबोले रहना चाहते हैं या राजनैतिक लोगों की तरह कह कर कहना चाहते हैं कि- मेरे कहने का गलत अर्थ लगाया गया है । मेरा कहने का मतलब यह था कि मैं साहित्य में आरक्षण का विरोधी हूं, दलितों और पिछड़ी जातियों को मिलने वाले आरक्षण का नहीं । नामवर जी महान हैं और उन जैसे महान लोग जैसे चाहें वैसे बातों को धार देने की कला रखते हैं । आरक्षण विरोधी होने के बावजूद बात पलटने का अधिकार उनके पास आरक्षित है । तब मन में विचार उठता है कि यूं ही कोई नामवर नहीं होता ? अब यह बात हजम नहीं होती कि अगर नामवर जी के कहने का आशय साहित्य के आरक्षण से था तो फिर बाभन-ठाकुर के लड़कों की भीख मांगने तक की नौबत आ गई है, कहने की सार्थकता या तात्पर्य क्या था ?
समाज का आर्थिक ढांचा जिस ढ़ंग से गैरबराबरी का होता जा रहा है उसमें किसी भी जाति या वर्ग के कमजोर तबके के लिये जीना मुश्किल होता जा रहा है, इसमें बाभन-ठाकुर जाति के लोग भी होंगे और बहुतायत में पिछड़े और दलित भी । पर नामवर जी की बात का यह तात्पर्य तो कतई नहीं था । नामवर जी हमेशा सचेतन रूप से शगूफा छोड़ते हैं । उन्होंने सोच-समझ कर ही प्रगतिशील लेखक संघ के 75वें अधिवेशन को चुना था । अगर नामवर जी के कहने का आशय साहित्य में आरक्षण से था तो इसके कारक कौन है ? अगर नामवर जी की जातिगत भाषा में सवाल करूं तो क्या वे दलित हैं ? फिर कौन ऐसे आरक्षण का नेतृत्व कर रहा है ? साहित्य के सत्ता केन्द्रों पर कितने गैर नामवरी लोग बैठे हैं ? अब तक किन की कहानियों को उछाला गया है और किनको पुरस्कृत किया गया है ? विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों में महान साहित्यकारों ने चयन समितियों में अपना स्थान बनाकर किन्हे चुना है ? किन्हे, किसके द्वारा पी0एच0डी0 की उपाधि दिलाई गई है ? शायद नामवर जी यहां उनकी जाति न देखना चाहेंगे । क्योंकि तब वे माक्र्सवादी बन जायेंगे । तब वह वर्ग आधारित समाज की बात पर आ जायेंगे और जाति आधारित समाज की वकालत करने से परहेज करने की बात करेंगे । अगर उनकी जाति देख ली जाये तो तमाम महान लोगों को नंगे होने में ज्यादा समय न लगेगा ।
नामवर जी की वाक् पटुता, स्मृति क्षमता और बौद्धिकता की हम सभी इज्जत करते हैं और उन्हें सुनने जाते भी हैं । पर बदले में नामवर जी से क्या मिलता है ? अपनी कुलीनता का लबादा ओढ़े वह हर सम्मेलन के केंद्र में बने रहते हैं या रहना चाहते हैं । वह अपनी बात कह उठ जाते हैं । दूसरों की सुनते नहीं और उद्घाटन, समापन तक सीमित रहते हैं । प्रलेस में भी उन्होंने यही किया । अपनी बात कह उठ गये, लौटे समापन करने । बाकी साहित्यकारों की बातें उनके काम की न थीं । कुलीनता की यही प्रवृत्ति होती है ।
प्रगतिशील लेखक संघ के 75वें अधिवेशन में जाने का और बोलने का मौका मुझे भी मिला था । नामवर जी ने वीरेन्द्र यादव के जिस आलेख को असत्य, तोड़-मोड़ कर पेश करने वाला बताया है वह गले नहीं उतरता । नामवर जी ने दलित विमर्श और स्त्री विमर्श पर भी अपनी बात रखी थी । उन्होंने कहा था कि गैर दलित, दलित संवेदना को क्यों नही उद्घाटित कर सकता ? जाहिर है उनकी इस बात का विरोध नहीं किया जा सकता । मैंने अपने वक्तव्य में यह सवाल उठाया था कि नब्बे के बाद गैर दलितों ने दलित विमर्श से इसलिये किनारा कर लिया क्योंकि दलितों का भोगा हुआ यथार्थ, दूसरों की तुलना में ज्यादा प्रभावी और उद्वेलित करने वाला था । इससे छद्म मार्क्सवादियों की कुलीनता को झटका लगा था और प्रतिक्रिया स्वरूप उन्होंने दलित संवेदना को विषय बनाना छोड़ दिया । मुझे ही नहीं, तमाम लोगों को नामवर जी की आरक्षण के संबंध में की गई टिप्पणी हैरान करने वाली लगी थी । यह और बात है कि कुलीन तबके ने हमेशा की तरह चुप्पी साधना बेहतर समझा । नामवर जी अपने आरक्षण विरोधी बात को अब वर्ग आधारित समाज की बात बता रहे हैं । जब मैं ‘जातिदंश की कहानियां’ संपादित कर रहा था तब एक प्रसंग में नामवर जी ने मुझसे कहा था कि उन्होंने जाति और वर्ग पर लिखना छोड़ दिया है । हो सकता है कि उनका आशय यह हो कि अब वह जाति और वर्ग पर लिखना छोड़, बोलना शुरू कर दिया है । संभव है नामवर जी को यह याद न हो । क्योंकि महान लोगों को इतनी छोटी बातें याद नहीं रहती ।
नामवर जी दलित विमर्श और स्त्री विमर्श का मजाक उड़ाने के बाद कह रहे हैं कि उन्होंने रचनाओं की गुणात्मकता की बात कही थी । बेशक गुणात्मकता की बात हो तो किसी को क्या आपत्ति ? पर गुणात्मकता का पैमाना ऐसे आलोचकों पर तो नहीं ही होना चाहिये जो साल में छपी सभी कहानियों को पढ़ने के बजाय कुछ चुनिंदा कहानियों पर अपने शिष्यों की राय को राय बना दें ? एक बार कथाक्रम सम्मेलन में नामवर जी के वक्तव्य को याद किया जाये जिसमें उन्होंने कहा था कि सारी कहानियों को पढ़ना संभव नहीं था और उनके एक शिष्य ने कुल बीस कहानियां छांटी थीं और उनमें से उन्होंने कुछ कहानियों को पढ़ा है । मैत्रेयी जी ने उनकी बात पर आपत्ति उठाई थी और कहा था कि उनमें से कोई कहानी किसी लेखिका की क्यों नहीं थी ? दलित लेखक की बात ही छोडि़ये । यही है साहित्य में आरक्षण ।
दरअसल कोई बात संदर्भों से कब कटी बताई जायेगी और कब तोड़-मोड़ कर प्रस्तुत की हुई, कुलीनता और वर्चस्ववादी मानसिकता के अधिकार क्षेत्र में आती है । प्रगतिशील लेखक संघ के 75वें अधिवेशन में नामवर जी ने जो कुछ कहा, उसे हम सभी ने सुना और पढ़ा था । विरोध के स्वर तो तभी उठे थे । नामवर जी ने वीरेन्द्र यादव की बात के खंडन-मंडन में इतना विलंब क्यों कर दिया ? हमें स्वीकार करना होगा कि साहित्य में जातिवादी मानसिकता का एक नया दौर उभार पर है । कमजोर और हासिये के लोगों की बात स्वीकार करने के बजाय समर्थ तबका सीधे-सीधे बेहयाई पर उतर आया है । तभी तो वाराणसी के एक लेखक की बात का उत्तर वाराणसी का ही दूसरा लेखक यह कह कर देता है कि जब ठाकुर की बीवी को ठकुराइन कह सकते हैं तो चमार की बीवी को चमाइन क्यों न कहा जाये ? ऐसी मानसिकता पर शर्म करने के अलावा बचता क्या है ? क्या समाज में ठकुराइन का बोध चमाइन के बोध जैसा निर्मित है ? जो दंभ या कुलीनता का बोध ठकुराइन को प्राप्त है वही चमाइन को दिया गया होता तो यह सवाल उठता ही कहां ?

Sunday 5 July 2015

बनारस की संस्कृति : अवधेश प्रधान

बनारस में धर्म, साहित्य, संस्कृति, कला और ज्ञान की एक अटूट धारा वैदिक युग से अब तक बहती आई है, शायद इसीलिए किसी ने इसे 'अतीत से भी अधिक प्राचीन' कहा है. वैदिक काल से लेकर आज तक इसका एक पैर परम्परा पर मजबूती से जमा रहा है, तो दूसरा पैर हमेशा आधुनिकता की और बढ़ता रहा है. यहां गंगा के किनारे पाठशालाओं में विद्यार्थी और उनके आचार्य वैदिक ऋचाओं का पाठ करते रहे हैं, तो दूसरी ओर सारनाथ में बौद्ध भिक्षु बुद्ध की शिक्षाओं का प्रचार करते रहे हैं. गया में बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त होने के बाद बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं का प्रथम उदघोष करके जो 'धर्म-चक्र-प्रवर्तन' किया था, सारनाथ का धमेख स्तूप आज भी उस ऐतिहासिक घटना की याद दिलाता है. बुद्ध के समकालीन २४ वें तीर्थंकर महावीर स्वामी को अपने पहले शिष्य यहीं बनारस में प्राप्त हुए थे. महावीर से पहले जैनों के तीन तीर्थंकरों का जन्म यहीं हुआ था. सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ की जन्मस्थली भदैनी में, आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभु की जन्मस्थली चन्द्रावती में, ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ की जन्मस्थली हिरामनपुर (सिंहपुरी) में और तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की जन्मस्थली भेलूपुर में है बनारस प्राचीन काल से ही जैन धर्म का प्रमुख केंद्र रहा है. शिव की नगरी के रूप में विख्यात होने के बावजूद वैष्णव भक्ति के आचार्यों और अनुयायियों के लिए भी यहाँ अनुकूल वातावरण मिला. शिव काशी के बगल में विष्णु काशी भी फलती-फूलती रही. पंचगंगा घाट की सीढियां रामानंद की याद दिलाती हैं जिन्होंने भक्ति आन्दोलन को यह प्रसिद्द नारा दिया- " जात पांत पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई". इस घाट की सीढ़ियों से ऊपर चढते ही गोपाल मंदिर और आस-पास का वह क्षेत्र मिलता है जहां वल्लभाचार्य और विट्ठलनाथ की कृष्ण-भक्ति ने एक जमाने में अपना प्रभाव जमा रखा था. यहाँ कवीन्द्राचार्य, स्वामी भास्करानंद, स्वामी विशुद्धानंद से लेकर अघोर सम्प्रदाय के बाबा कीनाराम, तैलंग स्वामी, श्यामाचरण लाहिड़ी और माता आनन्दमयी तक एक से एक चित्र-विचित्र संतों को भरपूर सम्मान मिला. बुद्ध के बाद वर्णाश्रम, जात-पांत, उंच-नीच और धार्मिक-सामाजिक रूढ़ियों के विरुद्ध मानव-मात्र की समानता का क्रांतिकारी उदघोष करनेवाले कबीर बनारस की पहचान हैं, तो दूसरी ओर सत्य के लिए सत्ता का परित्याग कर चौदह बरस तक बन-बन भटकनेवाले राम की कथा के गायक तुलसीदास बनारस की शान हैं. यहाँ अपनी झोंपड़ी में बैठकर जूते गांठनेवाले सन्त रैदास को आचार-सहित विप्र समाज ने साष्टांग दंडवत किया(आचारसहित विप्र करैं डंडउति)भक्ति आन्दोलन ने विचारों के खुले संवाद की जो संस्कृति कायम की उसका दरवाजा बनारस ने कभी बंद नहीं किया. इसीलिए आधुनिक समय में स्वामी दयानंद के 'आर्यसमाज' और श्रीमती एनी बेसेंट की 'थियोसोफी' के लिए भी यहाँ गुंजायश हो सकी. स्वामी विवेकानद ने १९०२ में यहाँ आकर भूख, गरीबी, रोग और अशिक्षा से ग्रस्त मानवमात्र की निस्वार्थ सेवा का आह्वान किया, तो अवधूत भगवान राम ने पड़ाव पर कुष्ठरोगियों की सेवा शुरू की.
हिन्दू धर्म का प्रधान तीर्थस्थल होने के चलते कुछ लोग इसे हिन्दुओं का 'वैटिकन सिटी' कहते हैं, लेकिन तथ्य तो यह है कि विभिन्न धर्मों को मानने वाले और विभिन्न भाषाएँ बोलनेवाले विभिन्न प्रान्तों के लोग यहाँ लम्बे समय से कुछ इस तरह घुले-मिले रहते आए हैं कि इसे 'लघु भारत' कहना ज्यादा सही होगा.
बौद्ध और जैन धर्मों की चर्चा हम कर चुके हैं. यहाँ बड़ी संख्या में मुसलमान, सिक्ख और इसाई तो हैं हीं, नाममात्र को ही सही, कुछ पारसी भी हैं. बनारस के बहुधर्मी जनसमाज के मेल-जोल को केवल 'सहिष्णुता' जैसे शब्द से भी बयान नहीं किया जा सकता. यह एक दिलचस्प तथ्य है कि बनारस की जनता ने साठ के दशक में विधानसभा चुनाव में एक कम्युनिस्ट नेता रुस्तम सैटिन को जिताया था जो पारसी समुदाय के थे .
बनारस में इस्लाम का इतिहास एक हजार साल पुराना है. ग्यारहवीं सदी में सैय्यद सालार मसूद गाज़ी ने अपने सिपहसालार मालिक अफ़ज़ल अल्वी को बनारस में इस्लाम के प्रचार के लिए भेजा था. अलईपुरा और सालारपुरा नाम के मोहल्ले इन्हीं के नाम पर बसे हैं. शुरू-शुरू में जो मुसलमानों के काफिले आए उनमें शामिल कुछ मशहूर शख्सियतों के नाम पर यहाँ कंची सराय, कंची का मज़ार, बटऊ शहीद का मज़ार और याकूब शहीद का मज़ार, बाकराबाद और जलालुद्दीनपुरा जैसे मोहल्ले कायम हैं. चौहट्टा लाल खां में ढाई कंगूरे की मस्जिद बहुत पुरानी है, कोई मानता है १०५९ में बनी, कोई १०७१ में, कोई १११९ में बनी मानता है. इसी तरह 'चिहल सुतून' नाम की मस्जिद भी ८०० बरस पुरानी है, जिसके चार खम्भों को ध्यान में रखकर मोहल्ले का नाम चौखम्भा पडा . सुप्रसिद्ध अरब यात्री अल-बैरूनी ने यहीं रहकर संस्कृत सीखी थी और उसने अपने यात्रा वर्णन में लिखा था कि यहाँ के मंदिरों में अन्य धर्मों का वही सम्मान है जो हिन्दू धर्म का. अठारहवीं सदी के फारसी शायर शेख अली हजीं जो एक बार बनारस आए, तो फिर वहां से वापस न जा सके, लिखा है-
अज़ बनारस न ख़म माबद आम अस्त इंजा.
हर बरहमन पेसर लछमन-ओ-राम अस्त इंजा.
(मैं बनारस से वापस नहीं जा सकता क्योंकि यहाँ हर तरफ इबादत करनेवाले रहते हैं; यहाँ ब्राह्मण का हर बेटा राम और लक्ष्मण की तरह है)
१८२७ में यहा मिर्जा ग़ालिब तशरीफ लाए और रहे: उन्होंने यहाँ की शान में 'चरागे-दैर' नाम की मसनवी लिखी और इस पवित्र भूमि की प्रशंसा करते हुए इसे काबा तक कह डाला!और यह ऐतिहासिक तथ्य तो विश्व-प्रसिद्द है कि शाहजहाँ के बड़े बेटे दारा शुकोह ने संस्कृत की शिक्षा यहीं के पंडितराज जगन्नाथ से ली थी और दारा ने यहीं रहते हुए उपनिषदों का फारसी अनुवाद 'सिर्रे-अकबर' नाम से किया था. यही वह महान ग्रन्थ है जिसके लैटिन अनुवाद के द्वारा अमरीका और यूरोप के विद्वान उपनिषदों से परिचित हुए.
इतिहास के लम्बे दौर में काशी एक सांस्कृतिक प्रयोगस्थली बनती गई जहां मेल-जोल की तहज़ीब यहाँ के आम लोगों की ज़िन्दगी का हिस्सा बन गई. यहाँ की भाषा, कला, कारीगरी, मेले-ठेले, साहित्य-संगीत की परम्परा पर उसकी गहरी छाप मौजूद है. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ब्रजभाषा और खड़ीबोली के साथ-साथ कई कवितायेँ बंगला, राजस्थानी, मारवाड़ी और संस्कृत में भी लिखीं और 'रसा' उपनाम से उर्दू में काव्य-रचना की. प्रेमचंद के सरल गद्य में हिन्दी-उर्दू की गलबहियां देखते बनती है. नज़ीर साहब तो आगरेवाले नज़ीर अकबराबादी के मानो बनारसी संस्करण थे. संगीत के इतिहास में बड़े रामदास, छोटे रामदास, मथुरा मिश्र, पंडित शिवदास, महादेव मिश्र के साथ-साथ ज़फर खां, प्यारे खान, रबाबी, उमराव खां, मोहम्मद अली, सआदत अली खां जैसे नाम हैं. दुर्गा जी को चढ़ाई जानेवाली चूनर में कौन धागा हिन्दू बुनकर ने बुना है, कौन धागा मुसलमान बुनकर ने, कोई बता नहीं सकता. गिरिजा देवी के गायन, किशन महाराज के तबले और उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की शहनाई में एक ही संगीत बजता है- मेल-जोल का, प्रेम का, आपसदारी का. यहाँ के प्रसिद्द ध्रुपद-गायक प्रो. ऋत्विक सान्याल हैं जिनके कंठ-स्वर में जिया मुइनुद्दीन डागर और ज़िया फरीदुद्दीन डागर की परम्परा विकसित हो रही है. यहाँ के विश्व-प्रसिद्द संकट-मोचन संगीत समारोह में संकट मोचन मंदिर के सामने उस्ताद अमजद अली खां की रोमांचक प्रस्तुति होती है. और रस की धारा श्रोताओं को धर्म के संकीर्ण दायरे के पार मानव ह्रदय के उदार विस्तार का अनुभव कराती है.और ठीक इसी समय भाजपा का भयावना चेहरा बनारस की इस महान सांस्कृतिक परम्परा का प्रतिनिधित्व करने की घोषणा करता हुआ १६वीं लोकसभा के चुनाव में कूद पड़ता है. बनारस की जनता, भारत का बच्चा और सारी दुनिया उस चेहरे को नरेंद्र मोदी के नाम से जानती है, जिसका नाम लेते ही २००२ के गुजरात जनसंहार की याद आती है! और जब भारतीय जनता पार्टी इस नाम को भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तावित करती है तब देशभर के और ख़ास कर बनारस के नागरिकों के मन में यह आशंका जन्म लेती है कि क्या गुजरात के बाद आम तौर पर पूरे देश की और खासतौर पर बनारस की बारी है! 'अबकी बार मोदी सरकार' का मतलब कहीं 'हज़ारों साल की तहजीब तार-तार' तो नहीं है! जिन लोगों ने कभी राम जन्मभूमि का मुद्दा उठाकर राम के नाम पर बाबरी मस्जिद गिराई थी और यह नारा लगाया था - 'यह तो पहली झांकी है, मथुरा-काशी बाकी है'; जिन लोगों ने गली गली में यह नारा लिखा था- 'तीन नहीं अब तीस हजार, बचे न एको कब्र- मज़ार', उन्हीं लोगों ने अब के चुनाव में नारा लिखा है- 'अब की बार मोदी सरकार'! इस मोदी सरकार की सांस्कृतिक नीति क्या होगी, कैसी होगी- इसको जानने के लिए इनके सुबहो-शाम बदलने वाले वक्ती बयानों की बजाय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आदर्शों और कारनामों का जायज़ा लेना ज़्यादा सही होगा. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही वह पौध-शाला है जहां से भाजपा, बजरंग दल, ए.बीbee.वी.पी. सरस्वती शिशु मंदिर आदि की फसलें तैयार होती हैं.
१९२५ में महाराष्ट्र के एक डाक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी. हिन्दुओं को मज़बूत बनाने के नाम पर यह हिन्दू नौजवानों के एक कट्टर और जुनूनी संगठन के तौर पर उभरा. 'डाक्टर जी' की मृत्यु के बाद माधव सदाशिव गोलवलकर (गुरु जी) इसके सरसंघचालक हुए जिन्होंने इसके आदर्शों और कारनामों को परवान चढ़ाया और इसकी 'राष्ट्रीयता और संस्कृति' को सूत्रबद्ध भी किया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यकीन न तिरंगे झंडे में है और न संविधान में. गुरु गोलवलकर ने संघात्मक राज्य के स्थान पर एकात्मक राज्य पर जोर दिया. १४ अगस्त, १९४७ को आर एस एस के मुखपत्र 'ऑरगेनाइज़र' ने तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में चुनने की निंदा करते हुए लिखा था, " वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिन्दुओं द्वारा न कभी इसे सम्मानित किया जा सकेगा, न अपनाया जा सकेगा." रवीन्द्रनाथ ठाकुर के लिखे 'जन-गण-मन' के प्रति संघ परिवार की वितृष्णा जगजाहिर है. संघ के नेता लोकतंत्र को तरजीह न देकर 'एक झंडा, एक नेता और एक विचारधारा' का नारा देते रहे हैं.
१८५७ में साम्राज्यवाद के विरुद्ध हिन्दू और मुसलमान किसानों , कारीगरों और सिपाहियों ने मिलकर जो अभूतपूर्व मुक्ति-संग्राम छेड़ा था, उसके बारे में गुरु गोलवलकर के ये विचार पढ़ कर धक्का सा लगता है, " उस क्रान्ति के महान नेताओं ने पहले ही झटके में दिल्ली पर कब्जा कर लिया और स्वतन्त्र सम्राट और स्वाधीनता संग्राम के नेता के तौर पर बहादुरशाह जफ़र को .... पुनर्स्थापित कर दिया.,.. लेकिन क्रांतिकारियों के इसी कदम ने हिन्दू जनता के मन में यह शक पैदा कर दिया कि जिस अत्याचारी मुग़ल शासन को गुरुगोविंद सिंह, छत्रपति शिवाजी और इसी तरह के दूसरे बलिदानियों के संघर्ष ने चकनाचूर कर दिया, वह फिर उनपर थोपा जाएगा. " गुरु जी मानते हैं कि इसी वजह से १८५७ की क्रान्ति की पराजय हुई! यानी रानी लक्ष्मी बाई, कुंवर सिंह, तात्या टोपे, राणा बेनीमाधव, देवीबक्श जैसे क्रांतिकारी गुरु जी की नीति पर चलते तो क्रान्ति में ही शरीक न होते!कोई आश्चर्य नहीं कि संघ परिवार के किसी नेता ने आजादी की लड़ाई में कभी भाग नहीं लिया. हाँ, हिन्दुओं में साम्प्रदायिक संकीर्णता का ज़हर फैलाकर आज़ादी के लड़ाई को भटकाने का काम जरूर किया. संघ के नेताओं ने जिस 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' को परिभाषित किया उसके अनुसार हिन्दू समुदाय का 'राष्ट्रत्व' असंदिग्ध और स्वतःसिद्ध है ( भले ही वह साम्राज्यवाद का दलाल और मुखबिर हो) और 'हिन्दू राष्ट्र' के तीन सबसे बड़े खतरे हैं - १. मुसलमान २. इसाई और ३. कम्युनिस्ट. संघ परिवार एक ओर मुस्लिम-विद्वेष को अभियान की तरह आगे बढाता है, तो दूसरी ओर स्वयं को स्वामी विवेकान्द का उत्तराधिकारी घोषित करता है- उन्हीं विवेकानंद का जिन्होंने एक ऐसे भारत का सपना देखा था जिसका 'मस्तिष्क वेदांती और शरीर इस्लामी' होगा! उनके मुस्लिम-विद्वेष की चरम परिणति हिन्दू महासभा के एक कट्टर नौजवान नाथूराम गोडसे के हाथों गांधी जी की निर्मम ह्त्या में हुई! संघ परिवार कांग्रस के बड़े नेताओं में सरदार वल्लभ भाई पटेल को सबसे अधिक पसंद करता है, उन्हीं सरदार पटेल को डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नाम पत्र में लिखना पड़ा, "मेरे पास जो रिपोर्टें आई हैं वे सिद्ध करती हैं कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और हिन्दू महासभा, खासकर संघ के कार्यकलापों के कारण देश में जिस वातावरण का निर्माण हुआ उसी के चलते गांधी जी की हत्या हुई. गांधी जी की हत्या के षड्यंत्र में हिन्दू महासभा का अतिवादी गुट भी शामिल था. इन तथ्यों के बारे में मेरे मन में लेशमात्र भी संदेह नहीं है". उन्होंने सरसंघचालक गुरू गोलवलकर के नाम पत्र में भी साफ लिखा था,"संघ के अग्रणियों के भाषण सांप्रदायिकता के ज़हर से भरे हुए होते हैं. संघ वालों के विषवमन के कारण ही गांधी जी की हत्या हुई. संघ के लोगों ने गांधी जी की हत्या के बाद आनंद मनाया और मिठाइयाँ बांटी."4 फरवरी 1948 को भारत सरकार ने (पटेल जिसके गृहमंत्री और उपप्रधानमंत्री थे) आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया. सरकारी विज्ञप्ति में कहा गया कि आरएसएस के सदस्य आगजनी, लूटमार, डाके,हत्याएं, हथियार और गोला-बारूद इकट्ठा करने जैसी हिंसक कार्यवाहियों में लगे हैं. छ्ह महीने बाद पटेल ने जो गोलवलकर को पत्र लिखा उससे पता चलता है कि प्रतिबंध से भी आरएसएस की इन हिंसक कार्यवाईयों पर असर न हुआ. लिखा है, "मेरे पास जो रिपोर्टें आती हैं उनसे यही विदित होता है कि पुरानी कार्यवाहियों को नई जान देने का प्रयत्न किया जा रहा है."
गोडसे को देखते-देखते हीरो किन लोगों ने बनाया? गोडसे की फांसी की सजा की तारीख पर 'हुतात्मा दिवस' कौन लोग मनाते हैं? 'मी गोडसे बोलतोय' किन लोगों का पसंदीदा नाटक है? वस्तुतः इस समूची परिघटना के पीछे संघ परिवार की वह विचारधारा है जो मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक मानती है और मुसलमानों के 'भारतीयकरण' या 'हिंदूकरण' की बात करती है. चूंकि गांधीजी देश बँटवारे के समय फैली सांप्रदायिक हिंसा के माहौल में घूम-घूम कर आपसी सहभाव और शांति बनाए रखने की अपील कर रहे थे इसलिए उनको समझ-बूझ कर ठंडे दिमाग से मुस्लिम विद्वेष ने अपनी गोली का निशाना बनाया. यह गोली जिस पिस्तौल से चली थी उसके पीछे काम करने वाली विचारधारा गुरू गोलवलकर के शब्दों में इस प्रकार है : "हिंदूस्तान के गैर हिन्दू लोगों को हिन्दू संस्कृति और हिन्दू भाषा को अंगीकार कर लेना चाहिए. उन्हें हिन्दू धर्म की मान्यताओं और परम्पराओं को सीखना चाहिए और उनका आदर करना चाहिए. उन्हें हिन्दू जाति और हिन्दू संस्कृति के सिवा किसी विचार की तारीफ नहीं करनी चाहिए. एक शब्द में कहा जाय तो उन्हें अपना विदेशीपन छोड़ देना चाहिए या नहीं तो उन्हें हिन्दू राष्ट्र में एक दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में रहने पर मजबूर होना पड़ेगा. उन्हें किसी भी तरह के दावे, किसी भी सुविधा या राज्य द्वारा विशेष दर्जा और यहाँ तक कि नागरिक अधिकारों से भी वंचित होना पड़ेगा." यह एक रोचक तथ्य है कि तमाम हिन्दू मुस्लिम विद्वेष के बावजूद आरएसएस के 'हिन्दू राष्ट्रवाद' से मुस्लिम लीग के 'मुस्लिम राष्ट्रवाद' का अद्भुत तालमेल था. हिन्दू राष्ट्र के एक प्रबल पैरोकार सावरकर ने 15 अगस्त 1947 को एक संवाददाता सम्मेलन में कहा था, “जिन्नाह के द्विराष्ट्रीय सिद्धान्त से मेरा कोई झगड़ा नहीं है. हम हिन्दू लोग अपने आप में एक राष्ट्र हैं और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिन्दू मुसलमान दो राष्ट्र हैं”. यह भी जगजाहिर है कि जब 1942 में अंग्रेजी राज ने कांग्रेस को प्रतिबंधित कर दिया था और सारे देश में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ को लेकर कठोर दमन चल रहा था, तब मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा ने मिलकर सिंध और बंगाल में सरकारें चलाईं थीं.डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 1940 में ही कितनी सटीक टिप्पणी की थी : “यह बात सुनने में भले ही विचित्र लगे पर एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के प्रश्न पर श्री सावरकर और श्री जिन्नाह के विचार परस्पर विरोधी होने के बजाय एक दूसरे से पूरी तरह मेल खाते हैं. दोनों ही इस बात को स्वीकार करते हैं बल्कि इस बात पर जोर देते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं – एक मुस्लिम राष्ट्र और एक हिन्दू राष्ट्र”.

संघ परिवार के इस ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के विनाशकारी परिणाम का सिलसिला 1947 के बँटवारे पर ही खत्म नहीं होता बल्कि हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र से आगे बढ़कर सिख राष्ट्र, ईसाई राष्ट्र, बौद्ध राष्ट्र आदि की भी संभावनाएं खोल देता है. संघ परिवार के पत्रों के अनुसार 1990 में श्री लालकृष्ण आडवाणी की ‘रामरथयात्रा’ और 1991 में श्री मुरली मनोहर जोशी की ‘एकता यात्रा’ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के इसी संदेश को जन-जन तक पहुंचाने के लिए आयोजित की गई थी. और सच पूछिये तो गुजरात में श्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात दंगों के जरिये इसी ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ की एक झांकी पेश की थी जब 2000 से अधिक मुसलमानों का कत्ल किया गया, महिलाओं के साथ बलात्कार किए गए, बच्चों को काटा गया और उन्हें जिंदा आग में झोंका गया, मुसलमानों की दुकानें चुन-चुन कर जलाई गईं,उनके घरों में आग लगाई गई और वली गुजराती की मजार – जहां हिन्दू और मुसलमान दोनों अपनी मन्नतें लेकर जाते थे – न केवल ढहा दी गई बल्कि वहाँ कुछ ही घंटों के भीतर सड़क बना दी गई.मोदी जी ने 2007 में फरमाया – 'मुझे गुजरात दंगों का दुख तो है पर कोई अपराधबोध नहीं है.' याद कीजिये उन लोगों को जिन्हें बाबरी मस्जिद ढहाए जाने का न दुख है, न अपराधबोध! 6 दिसंबर को शौर्य दिवस के रूप में कौन लोग मनाते हैं! गांधी जी की हत्या पर मिठाइयाँ किन लोगों ने बांटी! गोडसे की याद में हुतात्मा दिवस कौन लोग मनाते हैं! मोदी जी की भाषा उन लोगों से कितना मेल खाती है!
बनारस की राजनीति में डॉ. भगवानदास जैसे थियोसोफिस्ट, मालवीय जी जैसे उदार हिंदूवादी, डॉ. सम्पूर्णानन्द जैसे वेदांती समाजवादी और चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारी युवाओं की भावधारा का महत्वपूर्ण स्थान रहा है. यहाँ कमलापति त्रिपाठी जैसे कांग्रेसी, राजनारायण जैसे सोशलिस्ट, रुस्तम सैटिन और सत्यनारायण जैसे कम्युनिस्ट नेताओं के साथ-साथ क्रांतिकारी कम्युनिस्ट युवाओं का भी प्रभाव रहा है. बाबरी मस्जिद विध्वंस के ठीक बाद, जब हिन्दू धर्मोन्माद की राजनीति अपने शीर्ष पर थी, क्रांतिकारी छात्र संगठन आइसा के आनंद प्रधान ने बीएचयू के छात्रसंघ चुनाव में एबीवीपी के देवानंद सिंह को हराया था. यहाँ के धार्मिक वातावरण में पलने वाली जनता की साझा संस्कृति का जादू, एकबार सारी दुनिया ने प्रत्यक्ष अनुभव किया जब संकट मोचन मंदिर में बम विस्फोट के बाद तनावपूर्ण माहौल में मंदिर के महंत प्रो. वीरभद्र मिश्र और शहर के मुफ्ती मोहम्मद बातिन ने जनता से शांति और सद्भाव बनाए रखने की संयुक्त अपील की थी और सचमुच शहर में एक भी चिंताजनक घटना नहीं घटी. यह बनारस के जन-जीवन की अंतर्निहित आपसदारी और भाईचारे की अद्भुत मिसाल थी जिसे सारी दुनिया ने देखा और महसूस किया.
जब मोदी जी बनारस को ‘संस्कृति की राजधानी’ कहते हैं तो संदेह होता है कि कहीं वे काशी को अपनी संघी संस्कृति की प्रयोगस्थली तो नहीं बनाना चाहते! मोदी जी की संस्कृति में तो एक नेता,एक धर्म, एक भाषा एक विचारधारा का बोलबाला है, फिर बनारस की बहुधर्मी, बहुभाषी, बहुरंगी संस्कृति का क्या होगा जिसमें विविध विचारों के संवाद की गुंजाइश है? संघ ने बनारस में एक 'विश्व संवाद केंद्र' जरूर बना रखा है लेकिन उसमें विश्व क्या बनारस के ही विभिन्न विचारों का संवाद होता कभी नहीं सुना गया. अलबत्ता ईसाई समुदाय के 'मैत्री भवन' में बनारस के विविध विचारों का संवाद अक्सर आयोजित होता है

Sunday 21 June 2015

योग दिवस पर विपश्यना / प्रेम कुमार मणि

योग दिवस पर मुझे अपनी तरुणाई के नालंदा - प्रवास की याद आ रही है। भिक्षु द्वय जगदीश कश्यप और धर्मरत्न जी से विपस्सना को जाना समझा था। बुद्ध के अनुयायी इसे बहुत महत्व देते है। बुद्ध मानते थे की मन के उथल - पुथल का शरीर पर प्रभाव पड़ता है। वह मन को दुरुस्त करने की एक विधि बताते हैं। यही विपस्सना है। मन में ही विकार उठते है , जैसे क्रोध या अन्य बुरे भाव। क्रोध एक उग्र विकार है , अतएव इसे ही उदाहरण के रूप में लें। क्रोध उभरने से साँस अनियमित हो जाती है और इस अनियमन से शरीर की जीव रासायनिक क्रिया में अस्वाभाविक हलचल मच जाती है। मुहावरे में हम इसे खून खौलना कह सकते है। शरीर की यह अस्वाभाविक क्रिया हमारा चित्त और स्वास्थ दोनों ख़राब करती है। जीवन में यह लगातार होता रहे तो हम विनाश की ओर बढ़ते हैं।
बुद्ध सांसो पर पहरेदारी की बात करते हैं। इसे आना- पान सति कहा जाता है। जब हम सांसो की विसंगति को ठीक करते हैं , उसे लय में लाते हैं तब हमे शरीर के अन्य हिस्सों में आये विकारों को देखने में सुविधा होती है। यही विपस्सना है। पश्य अर्थात देखना , विपश्य अर्थात विशिष्ट रूप से देखना। अपने विकारो को देख लेने भर से उसका अवलम्ब - यानि आधार ध्वस्त हो जाता है। इसके साथ विकार भी समाप्त होने लगते है , क्रोध शमित होने लगता है।
आना- पान सति और विपस्सना पहला और दूसरा पायदान है। यह एक विज्ञान है। इसके अभ्यास से व्यक्ति विकार मुक्त होकर सद्चित युक्त होता है। ऐसे लोगो से बना समाज सच्चे अर्थों में धार्मिक बनता है - तन मन से विकार मुक्त स्वस्थ समाज।
योग विपस्सना का उलट है , विपरीत है। यह स्वस्थ शरीर से स्वस्थ मन की ओर बढ़ता है। बुद्ध स्वस्थ मन से स्वस्थ शरीर की ओर बढ़ते हैं। वैज्ञानिक विधि कौन है यह आप तय करेंगे। बाबा रामदेव अगर योग की जगह विपस्सना करते तो व्यापार की माया में नहीं बंधते। प्रधानमंत्री श्री मोदी यदि आना- पान सति से विपस्सना की ओर बढ़ते तब कई विवादों से दूर रहते।
इस विपस्सना के लिए किसी सांप्रदायिक मंत्र की भी जरुरत नहीं होती। यहाँ तो बस दीर्घ मौन की जरुरत है। इस योग दिवस पर लोग विपस्सना की चर्चा भी कर सकें , तो मै इसे एक अच्छी शुरुआत मानूंगा।

Saturday 28 December 2013

अच्छे आदमी

अच्छे आदमी स्व्यं में  महत्वपूर्ण घटना हैं
अच्छे आदमी जो कभी चिढ़ाते रहे हैं शैतान को
सच करते रहे हैं धरती पर होना ईश्वर का

अच्छे आदमी ईश्वर के बिना भी अच्छे रह सकते हैं
जब वे नाराज होते हैं और किसी को भी नहीं मानते
जब वे खुश रहते हैं और आमंत्रण कि मुद्रा में होते हैं
अच्छे आदमी अच्छे ही रहते है 

Saturday 7 December 2013

अस्मिताओं का संकट

अस्मिताओं का संकट भारत कि सबसे प्रमुख समस्या है .भारत में पेशेवर राजनीति के विकसित न होने के पीछे भी उसकी अस्मितावादी सामुदायिक संरचना ही है .यह बिना विचार और आधार के ही राजनीतिज्ञों को समर्थक उपलब्ध कराती है .यद्यपि यह सच है कि भारतीय समाज पश्चिम की तरह व्यक्ति -केन्द्रित ईकाइयों वाला नहीं हो सकता और यह भी कि इसकी अंतिम ईकाई अब भी परिवार ही है .कल्याणकारी राज्य की अवधारणा की विफलता और भारी भ्रष्टाचार के बावजूद इसकी स्थिरता का रहस्य इसका परिवारवाद ही है.यहाँ मेरा आशय नेताओं और अभिनेताओं के परिवारवाद से नहीं है ,उस परिवारवाद से है ,जो अंधों की उंगली पकडे और लंगड़ों को अपने कन्धों पर बिठाए हुए बिना किसी सरकारी सहायता के उसे ढोता दिखाई देता है . पारिवारिक संवेदनशीलता और दायित्वबोध के कारण ही  भारतीय नेतृत्वऔर उसका प्रशासन दुनिया की सबसे नक्कारा प्रजाति है .वे अत्यंत न्यूनतम सृजनशीलता के साथ मजे-मजे राज करते रहते हैं ......